Sunday, May 31, 2015

HEISENBERG

Salgo de ahí...
donde soy el elegido, donde todos me miran, me quieren, me siguen.
Si son atrevidos me hacen bromas, me dicen chistes, de vez en cuando hasta me acaban insultando...
Salgo y me encuentro con los que firman... con los que firman y me saludan...
O si creen que soy engreído, me miran con desdén.
Salgo y me encuentro con otros, otros que me oyen... No sólo me oyen, sino también me escuchan...
Esos que son de otras comarcas, que han sido los nadies de sus pueblos...
Esos me escuchan y admiran el hecho de que yo cuente sin pelos en la lengua los cuentos de mi viaje desde nadie hasta nadie punto uno.
Y creen que es una historia de gran éxito.
Y de allá me voy con ellos que se ofrecen a llevarme hasta la casa...
La casa que por vergüenza tengo que ocultar...
Me bajo antes y camino al sol.
Llego a casa sintiéndome miserable por ser el que ni pudo proveer a su familia.
Ignoro las miserias y veo el viaje de Walter White... desde nadie hasta Heisenberg.
Sueño con dinero y me pregunto cómo logran dormir los que lo tienen.

Thursday, May 28, 2015

ग़ज़ल 4

चले नहा के ख़ून में, जिस्मो जाँ फ़िग़ार सब
नेज़ों पे लौट आ गए, गए थे जो सवार सब

तू जो अबके दूर है, क्या सबब के क्या मिले
हैं एक सी मेरे लिए, अब तो जीत हार सब

नाज़ जो था इश्क़ पे, इश्क़ जो था रात दिन
ख़ाक में यूँ मिल गया, हो गया ग़ुबार सब

हुआ है हुक़्म वक्त का, तू हुआ है बादशाह
शहर में तेरे बंद है, ये अपना कारोबार सब

हर गली में शोर है, हर तरफ़ है बस अज़ा
मौत तक इसी तरह, रहेंगे अश्कबार सब

Sunday, May 10, 2015

ग़ज़ल 3

कब तलक सुनते रहें चीखें तुम्हारे दार में 
मंज़िलें कितनी जुड़ेंगी मौत की मीनार में 

कब तलक होगा गुसल खूं से हमारे जिस्म का 
कब तलक लाशें बिकेंगी गोश्त के बाज़ार में 

कब तलक चलता रहेगा जश्न तेरी जीत का 
कब तलक रोते रहेंगे इस तरफ सब हार में 

कब तलक होगा रवाँ यूँ आपका ये कारवाँ 
कब तलक जाएंगी जानें आपकी रफ़्तार में 

कब तलक सासें हमारी यूँ खरीदी जाएंगी 
कब तलक चर्चा रहेगा आपका अख़बार में 

कब तलक चलता रहेगा मातमे मज़्लूमिअत 
कब तलक गूंजेगी क़ातिल की हंसी दरबार में 

ग़ज़ल 2

वो मुझको सहर देती है, मुझे आग़ाज़ देती है
वो मुझको इल्म देती है, अलग अंदाज़ देती है

जिन्होंने ज़िन्दगी खाई, उन्हीं माज़ी के गिद्धों को
कमी तेरी फिर इक पुरज़ोर सी परवाज़ देती है

ये तेरी याद मौसीक़ी मगर बेजानो बेमक़सद
ये मुझको रक्स देती है, मगर बेसाज़  देती है

ये सहरो रात का रोना, ये पागलपन, ये बेचैनी
न ये ख़ामोश रखती है, न ये अलफ़ाज़ देती है

कभी है बादशाहत और कभी है लाश बेपर्दा
कहीं ये मौत है देती, कहीं एजाज़ देती है

वो अब है और बस्ती में, वो अब है और दुनिया में
यहाँ से फिर गु़ज़रने पर वो क्यों आवाज़ देती है

ग़ज़ल 1

ऐसा लगता है कि कुछ होगा मगर होता नहीं
रास्ता वा है मगर अपना सफ़र होता नहीं 

वक्त की उन साअतों का भूलना पूरी तरह
उस तरफ़ तो हो गया है पर इधर होता नहीं 

इन हवाओं में वही अावाज़ उसकी है निहाँ
वो कहीं कुछ बोलता है पर नज़र होता नहीं 

है कमाल-ए-वक्त जो है अाज चर्चा आपका
वरना कोई भी यहाँ पर बाहुनर होता नहीं

इश्क में उसके ये दिल बेदार है अब इस कदर 
होश खो देता है लेकिन बेखबर होता नहीं 

दार पे चढ़ के भी उसका ज़िक्र है दर ख़ासो आम 
वो फ़ना तो हो गया है बेअसर होता नहीं 

लब्बैक या हुसैन

हर साल मुहर्रम आती है
फर्श ए अज़ा बिछ जाती है
सब जानते हैं अब ग़म होगा
हर एक तरफ मातम होगा
कुछ दिन होंगे बस अश्कों के
कुछ रातें दुःख की बीतेंगी
हर पहर अलम लहराएगा
पर पता किसे था ये कल तक
ये साल मुहर्रम का होगा
हर दिन बस नोहे गूंजेंगे
हर रात अज़ादारी होगी
ज़ंजीरज़नी तारी होगी
हर सिम्त खूंबारी होगी
बस तेरा अलम लहराएगा
हर पल बस याद दिलाएगा
तूने आवाज़ लगाई थी
अब कौन यहाँ पर आएगा
संग मेरे लहू नहाएगा
आवाज़ तेरी बस सुनते हैं
हम आज तलक ये कहते हैं
लब्बैक हुसैन 
लब्बैक हुसैन