Saturday, July 4, 2015

ताराज 3

अपना घर भी ख़ाक़ है, करबला भी ख़ाक़ है
वो वली भी नोक पर, ये समा भी ख़ाक़ है

क्या लिखूँ मैं तेरा नाम, क्या करूँ मैं तेरी बात
तेरा हुस्न बग़ुज़र्द, हर अदा भी ख़ाक़ है

जो बला भी आएगी, ख़ुद भी हार जाएगी
सब कहेंगे ख़ाक़ हम, और बला भी ख़ाक़ है

इक हुसैन हैं वली, और जो भी हैं सभी
बात उनकी झूठ सब, और ख़ुदा भी ख़ाक है

क़त्ल कर दिया उसे, अब यहाँ है क्या बचा
ज़मीनो आसमाँ हैं ख़ाक़, और हवा भी ख़ाक़ है

इस नशे में बात क्या, जाम की बिसात क्या
मुझको जाम है ज़हर, मयक़दा भी ख़ाक़ है

एक मुझको याद वो, वो नहीं तो फिर मेरी
इब्तेदा भी ख़ाक़ है, इन्तेहा भी ख़ाक़ है

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