Sunday, May 10, 2015

ग़ज़ल 2

वो मुझको सहर देती है, मुझे आग़ाज़ देती है
वो मुझको इल्म देती है, अलग अंदाज़ देती है

जिन्होंने ज़िन्दगी खाई, उन्हीं माज़ी के गिद्धों को
कमी तेरी फिर इक पुरज़ोर सी परवाज़ देती है

ये तेरी याद मौसीक़ी मगर बेजानो बेमक़सद
ये मुझको रक्स देती है, मगर बेसाज़  देती है

ये सहरो रात का रोना, ये पागलपन, ये बेचैनी
न ये ख़ामोश रखती है, न ये अलफ़ाज़ देती है

कभी है बादशाहत और कभी है लाश बेपर्दा
कहीं ये मौत है देती, कहीं एजाज़ देती है

वो अब है और बस्ती में, वो अब है और दुनिया में
यहाँ से फिर गु़ज़रने पर वो क्यों आवाज़ देती है

No comments:

Post a Comment