Monday, April 4, 2016

नींद और ख़्वाब

उस काली जगह पर जाकर 
छू आए फिर उस मंज़र को 
जिस मंज़र को जब भी देखा 
जाने क्या दिल पर गुज़री है 
कुछ याद भी है, कुछ याद नहीं 
है साफ़ कहीं है धूल जमी 
पर फिर भी ये तन है लरजाँ 
जाने क्या इस पर गुज़र गई 
हम ख़ाबीदा थे कुछ कुछ तो 
कुछ याद भी है, कुछ याद नहीं 
हर तरफ़ धुआँ सा बिखरा था 
हर तरफ़ धुआं सा बिखरा है
उस काली जगह पर जाकर 
जाने क्या मंज़र देख लिया 
तूफाँ सा दिल से गुज़रा है 
कुछ कहर सा सर पर टूटा है 
कुछ दर्द भी है, कुछ आंसू भी 
कुछ धुआँ भी है और कोहरा भी
कुछ याद भी है, कुछ याद नहीं

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