Friday, June 3, 2016

फ़क़ीर-ए-इश्क़


किले बर्बाद करता और पत्थर छोड़ जाता है...
जहां जाता है खूँ का इक समंदर छोड़ जाता है

मोहब्बत तेरी गुज़रे है मेरे दिल से, मेरे कातिल,
के जैसे लूट कर शहरों को लश्कर छोड़ जाता है

तेरी यादों को मैं लेकर कहीं भी साथ जाता हूँ
कासा अपना कब दरवेश घर पर छोड़ जाता है

ये मेरे इश्क़ की दौलत है ऊंची क़स्र-ए-सुल्तां से
जो अपनी सारी दौलत को यहीं पर छोड़ जाता है

कैसा है फ़क़ीर-ए-इश्क़ तेरे नाम का, हैदर?
मैं उसको जो भी देता हूँ वो अक्सर छोड़ जाता है

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